Monday, November 29, 2010

इस औचक समय में

इस औचक समय में
                                  ---दीपक मिश्रा
इस बेहद दुश्वार और उत्कट समय में
जब मौसम की बौखलाहट , या कि
बदगुमानी में मदमस्त तानाशाह के षड्यंत्र और दुरभिसंधि
भी उस सन्नाटे को तोड़ नहीं पा रहे थे –
शब्द अपनी समूचे ताकत से अर्थवता खो रहे थे –
संवेदनशील होने का मतलब फालतू और लाचार होना था
-शहर जंगल और पसरी हुई ख़ामोशी के बीच उस आदमी
का अपने “आदमी “ होने से सम्पूर्ण इनकार
क्या समाजशास्त्रीय विवेचनाओं में उठेगा ?
क्या पड़ताल होगी कि कौन जिम्मेवार है
एक औसत बारह गजी कमरे में रहने वाला
“आदमी” सहसा “अमानवीय” और पागल क्यों हो जाता है ?
कि अपनी जमीं से जुड़ा और धंसा व्यक्ति क्यूँकर
अचानक से “ माओवादी “ हो जाता है? 

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