Monday, January 16, 2017

LUKMAN ALI .... SAUMITRA MOHAN

'लुकमान अली' से

सौमित्र मोहन
[1]

झाड़ियों के पीछे एक बौना आदमी पेशाब करता हुआ गुनगुना़ता है और सपने में
देखे हुए तेंदुए के लिए आह भरता हुआ वापिस चला जाता है । यह लुकमान
अली है : जिसे जानने के लिए चवन्नी मशीन में नहीं डालनी पड़ती ।

लुकमान अली के लिए चीज़ें उतनी बड़ी नहीं हैं जितना उन तक पहुँचना ।
वह पीले, लाल, नीले और काले पाजामे एक साथ पहन कर जब खड़ा होता
है तब उसकी चमत्कार शक्ति उससे आगे निकल जाती है ।
वह तीन लिखता है और लोग उसे गुट समझने लगते हैं और
प्रशंसा में नंगे पाँव अमूल्य चीज़ें भेंट देने आते हैं : मसलन
गुप्तांगों के बाल, बच्चों के बिब और चाय के खाली डिब्बे ।
वह इन्हें संभालकर रखता है और फिर इन्हें कबाड़ी को बेच
अफीम बकरी को खिला देता है । यह उसका शौक है और इसके
लिए वह गंगाप्रसाद विमल से कभी नहीं पूछ्ता ।

'लुकमान अली कहाँ और कैसे है ?'
अगर आपने अँगूठिए की कथा पढ़ी हो
तो आप इसे अपनी जेब से निकाल सकते हैं । इसका नाम
लेकर बड़े-बड़े हमले कर सकते हैं, पीठ पर बजरंग बली के चित्र दिखा सकते हैं,
आप आँखें बंद करके अमरीका या रूस या चीन या किसी
भी देश से भीख माँग सकते हैं और भारतवासी कहला सकते
हैं : यह भी मुझे लुकमान अली बताता है ।





[3]

लुकमान अली के लिए स्वतंत्रता उसके कद से केवल तीन इंच बड़ी है ।
वह बनियान की जगह तिरंगा पहनकर कलाबाज़ियाँ खाता है ।
वह चाहता है कि पाँचवें आम चुनाव में बौनों का प्रतिनिधित्व करे ।
उन्हें टॉफियां बाँटें ।
जाति और भाषा की कसमें खिलाए ।
अपने पाजामे फाड़कर सबके चूतड़ों पर पैबंद लगाए । वह गधे की
                                        सवारी करेगा ।
                                        अपने गुप्तचरों के साथ सारी
                                        प्रजा पर हमला बोल देगा ।
वह जानता है कि चुनाव
लोगों की राय का प्रतीक नहीं, धन और धमकी का अंगारा है
जिसे लोग                             अपने कपड़ों में छिपाए पानी
                                             के लिए दौड़ते रहते हैं ।

वह आज
नहीं तो कल
नहीं तो परसों
नहीं तो किसी दिन
फ्रिज में बैठकर शास्त्रों का पाठ करेगा ।
                        रामलीला से उसे उतनी चिढ़ नहीं है जितनी
                        पुरुषों द्वारा स्त्रियों के अभिनय से ।
वह उनकी धोतियों के नीचे उभार को देखकर नशा करने लगता है ।
वह बचपन के शहर और युवकों की संस्था के उस लौन्डे की याद करने
लगता है । वह अपने स्केट पाँवों में बाँध लेता है ।
प्रेमिका के बाल जूतों में रख लेता है । वह अपने बौनेपन में लीन
हो जाता है ।
वह तब पकड़ में नहीं आता क्योंकि वह पेड़ नहीं है ।
वह पेड़ नहीं है इसलिए लंबा नहीं है ।
वह लुकमान अली है : वह लुकमान अली नहीं है ।





[4]

कसिंह           सेफ्टी पिन छाती के बालों में अटका कर वह अपने बटन खोलने लगता
                     है । वह अपने काजों में गाजरें लगा लेता है । पैरों में खड़ाऊँ । महेश योगी
                     या ऐसे ही किसी ढोंगी का ध्यान करते हुए वह गाँजा पीने लगता
                     है ।
खसिंह           वह बाँसों में कीड़े खोजता हुआ बिहार में देखा गया था ।
गसिंह           वह राजकमल चौधरी का दोस्त था लेकिन उसे महसूस नहीं करता
                     था । वह विसंगति के नाटक में अकेला था । वह भाले उठाता-उठाता
                     हाँफ जाता था । उसे बलराज पंडित का नाम ठीक तब भूल जाता जब
                     वह उससे बातें कर रहा होता था ।
कसिंह           वह बौनेपन का झूठ ओढ़े हुए है । मैंने उसे एक रात 6'5" ऊँचा देखा
                     था ।
गसिंह           वह मनोवैज्ञानिक केस है ।
चसिंह           उसका असली नाम कुछ और है । वह हाथी की लीद है ।
खसिंह           वह हमदम के चित्रों में खुद को खोजता है । वह जिन चीजों के संपर्क में
                     आता है वे गलने लगतीं हैं । हमदम के चित्र प्लास्टिक के नहीं हैं कि
                     कोई आकार ले लें । उसे अपने चित्रों को बचाकर रखना चाहिए ।
कसिंह           वह लोगों के सिरों में कीलें ठोंककर उनकी गिनती करता है । फिर
                     पतंग उड़ाकर डोर का सिरा कीलों में बाँध देता है । वह कंचन कुमार
                     को अपना निर्णायक बनाना चाहता है ।

लुकमान अली अपने इन मिथकों के बजाय उस भाषा को समझना चाहता है
जो वह सोते-सोते बुड़बुड़ाता है । वह सोने और भाषा के बीच के पुल को
अपनी कमर में लपेट कर संसद में कूद जाना चाहता है ।





[10]

लुकमान अली ब्लैक-आउट में शब्दकोश लेकर पहरा देता है ।
वह लोगों की बातचीत समझने के लिए जल्दी-जल्दी पृष्ठ उलटता रहता है ।
                                                   वह हमेशा एक फंदा लेकर
                                                   घूमता है : जब वह छोटा था
                                                   तो इसे 'धंधा' बोलता था ।

सही शब्दों की गलत पहचान को वह दूरबीन से देखता हुआ अपनी उम्र के
तीस साल पसीने से भीगी मुट्ठियों में रोक लेता है । वह सड़क के बीचोंबीच
एक शीशा फेंककर पीछे से आती सवारियों को देख रहा है ।

॥लु॥क॥ मा॥ न॥ अ।ली॥ ती॥ र॥ की॥ त॥ र॥ ह॥॥ बि॥ ना॥
छु॥ ए॥ व॥ हाँ॥ से॥ गु॥ ज ॥र॥ जा॥ ता॥ है॥ ज॥ हाँ ॥रो॥ श ॥नी॥ न॥ हीं ॥ है॥

वह अपने पीले पाजामे को खेतों के बीच टाँग देता है और मंत्रियों के दलों की
राह देखने लगता है । वह लाल पाजामे को कॉफी हाऊस में लटकाता है
और रातोंरात सब कुछ बदल जाने का सपना देखने लगता है ।
वह नीले पाजामे को सीमा की चौकियों में गाड़ देता है और
वीरता के कारनामों की किताबें खरीदने के लिए लाईन में लग जाता है ।
वह काले पाजामे को अकादेमियों के पीछे फेंक आता है और टोने की तरह
असर होते देखना चाहता है ।

खुद नंगा होकर वह एक चट्टान पर लेटा है । आप जानते हैं कि वह
बचपन के उस लौन्डे की याद कर रहा है जो भूतों की कहानियाँ पढ़
कर घंटों छिपा रहता था ।

लुकमान अली किसी भी चीज को नहीं बदल सकता : अपने को भी
नहीं । वह सिर्फ इंतजार कर रहा है । वह 'इंतजार की व्यर्थता' के मुहावरे
को जानता है ।                     वह काँच को फुलाकर उससे
एक सैनिक बना रहा है । वह उसे चुटकुले सुनाएगा और खुद ही से हँसता
हुआ दराजों से नाड़े निकालने लगेगा ।

वह बाहर लुकमान अली है और भीतर अंधा तहखाना । वह तहखाने की फन्तासी
में सभी कुछ देख रहा है । वह सीढ़ियों से उतरता हुआ नब्ज टोह रहा है ।
जिसे आप मनोरोग कहते हैं
वह उसे देश का दुर्भाग्य कहता है ।
लुकमान अली सहमति नहीं चाहता : वह कटी उंगली पर नमक लगाकर लोगों
                                                                     को कवच पहना रहा है ।
वह उन्हें अपने को बचाते हुए देखना चाहता है । तब आदमी कितना बदशक्ल
हो जाता है—वह अच्छी तरह जानता है ।

गीली तीलियों से
आग लगाता हुआ लुकमान अली भाग रहा है ।
उसे पनाह देने के लिए न कोई मकान खाली है, न कोई जंगल,
न कोई पुराना कोट और न कोई दाढ़ी ।
वह अपने पाजामों से पहचान लिया जाता है ।
वह नीचे झुककर आदमियों की कतार के साथ-साथ मीलों
चला जाता है ।                    वह वहाँ खड़ा हो जाता है
जहाँ पुलिस धड़-पकड़ में बहुत अधिक सक्रिय है ।
और थोड़ी ही देर में वह एक 'दृश्य' बन जाता है ।

वह जानता है कि लोग तब ईमानदार नहीं होते जब
वे नौकरियों की छ्लाँग लगा रहे होते हैं ।
वह उनकी पसलियों में रेंगती चापलूसी को अमर बनाकर
हमेशा के लिए भाग जाना चाहता है ।

प्रदर्शनों के ऊपर उड़ते हुए हेलिकॉप्टर और टिड्डियां और पर्चे और पाजामे
और लाशें और टोपियाँ और बेलावादक और छ्पे हुए भाषण और गौएँ और
कविताएँ और मुखौटे और नेता और कुर्सियाँ और झगड़े और लफड़े
और तालाबन्दी और रेलें और अणुबम और लाठियाँ और राइफलें
और भूख हड़ताल और व्यावसायिक अखबार और लड़कियाँ और जूते और
अंडे और पुरस्कार और विदेश यात्राएँ और नौकरशाही और रिश्वतें
और प्रजातंत्र और अश्लीलता और आलोचकों के पुतले और विश्वविद्यालय
और विदेशी आक्रमण और संस्कृति और भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद
और सुअर और होटल और युवा चित्रकार और अंधेरा और चीखें और
बलात्कार और डाके और सड़क बंद और चिकित्सालय और सीमाएँ और
और और और और और और और और और और और और और और और
और और और और और और और और और और और और और और और
और और और और                                             और और और और
और और और और और और और और
                                            और और
                                            और और
                                            और और और और
                             और और और और और और
               और और और और और और और और
 और और और और और और और और और और
               और और और और और और और और
                              और और और और और और
                                            और और और और
                                                          और और
                                                          और और

लुकमान अली इन्हीं के नीचे से भाग रहा है । वह प्रदर्शनों
का हिस्सा होकर भी और से आतंकित है । वह अपने
पाजामों का छाता बना कर सभी कुछ सह रहा है । वह
झोली और डोली और लोली के तुकों में 'साकेत' खोज रहा है ।

लुकमान अली विशाल जनसभा के बीच में से धकेला जा रहा
है । वह अभी-अभी छ्तें फलाँगता रहा था । वह अपने पाजामों
के शौर्य से भ्रमित करता रहा था ।                         वह जानता है कि उसकी
नियति का किसी को भी पता नहीं है ।

लुकमान अली खुले गटर में खड़ा होकर राष्ट्र की सेवा कर रहा
है और उसे इसका पता नहीं है ।





कविता पश्चात का वक्तव्य :'लुकमाल अली' आटो-राइटिंग नहीं है । मैं इसे लिखने के लिए पाँच महीनों तक 'घबड़ाया' रहा हूं । 'लुकमान अली' की स्थितियों का सामना करते ही मुझमें से वे मनोवैज्ञानिक भय दूर होते रहे हैं जो बचपन से मेरा पीछा करते रहे हैं। मैं इसे अर्ध-जीवनीपरक कविता कह सकता हूं ।'लुकमान अली' मेरे लिए मात्र प्रतीक नहीं है — इसकी शारीरिक सत्ता है; फन्तासी की सत्ता है और मैं समझता हूं कि आज कविता में 'बुरे दिनों' का चित्रण या प्रतिक्रिया या एनकाउन्टर इसी फन्तासी से किया जा सकता है । इसी माध्यम से आज के अयथार्थ जैसे लगने वाले परिवेश में अपने जीवित होने को समझा जा सकता है ।यह नहीं कि आज का जीवन या कविता 'सार्थक खोज' हो सकती है : विसंगति के नाटक में दर्शक होने के सिवा कुछ नहीं किया जा सकता । मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से जानता हूँ कि आज का सबसे प्रिय 'जादू' कमीनेपन का जादू है और लोग उसमें अत्यधिक पारंगत होने कि लिए हर नैतिक बोध से छूटने की भरसक कोशिश करते हैं । यह एक अनचाही यंत्रणा है और उसके प्रभाव से हर चीज दूर खिसकती हुई दु:स्वप्न में बदल जाती है; और दु:स्वप्न में जाग्रत जीवन के नियम लागू नहीं होते । वहाँ आप अपने को दफन किए जाते देखते हैं, लेकिन कर कुछ नहीं सकते । 'लुकमान अली' काव्य चेतना का आरम्भ और अंत इसी दु:स्वप्न में कहीं ठहरा हुआ है ।

Thursday, December 15, 2016

ANIL ANALHATU

प्रिय मित्र और विद्रोही कवि तथा विलक्षण चिंतक भाई दीपक मिश्र के कुछ अस्फुट से विचार
1. हर व्यक्ति विवर्तित होता है, तभी वह जिन्दा है, समीचीन है। अनिल जी के साथ ही उस वैचारिक यात्रा की प्रासंगिकता को उन अर्थो में देखना ज्यादा महत्वपूर्ण होगा जिसमें हम (दोनों ) कैट होने से अपने आपको बचाये रखने का , एक अनवरत प्रयास कर रहे हैं। अनिल जी में एक अतिरिक्त सलाहियत है, उनकी कविताई। 1987 में ही , ख्यात साहित्यकार भारत यायावर ने यह घोषणा कर दी थी, अनिल बहुत उच्चे पाए के कवि हैं। जीवन के तमाम संघर्षो ने उस दृष्टि को धार दी है और यकीन माने ज्यादातर कविताएँ अनिल जी ने 15-20 साल पहले ही लिखीं हैं। भला हो फेसबुक, व्हात्सप्प , ब्लॉग और तमाम सूचना क्रांतियों के उपकरणों का कि ये प्रकाश में आयीं ।
वैचारिकता के स्तर पर अनिल उस रोमान से बाहर आ कर जो सोवियत संघ और कम्युनिष्ट पार्टियों के आधार पर था, बेहद वस्तुनिष्ठ और ठोस विचारो के साथ दीखते हैं। इस वैचारिक विवर्तन में, फ़ाकिर जय का भी एक उल्लेखनीय योगदान रहा है। गरचे फ़ाकिर घोषित रूप से अनिल जी को गुरु मानते हैं, लेकिन इस समय , मेरी समझ से उत्तर आधुनिकता, उत्तर संरचनावाद पर फ़ाकिर जैसे विद्वान् विरले हीं हैं हिंदी पट्टी में। महाख्यान से लघुख्यानो से फ़ाकिर ने (कम अस कम मुझको ) संपृक्त किया और चीजो को देखने का एक और विजन दिया।

2. मार्क्सवाद का सबसे महत्वपूर्ण अंग dialectical materialism था। मार्क्स ने , अगर आप कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो पढ़े, तो यह आगाज किया था कि अभी तक दार्शनिको/दर्शन ने दुनिया को समझने /व्यख्यायित करने का काम किया है, मूल प्रश्न इसे बदलने का है।
दूसरा मार्क्स ने उस समय तक के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक सिद्धान्तों को आत्मसात कर एक बेहतर सिद्धान्त दिया। लेकिन दुर्भाग्य से लेनिन, Rosa Luxemburg , लुकाच, ग्राम्सी आदि के अलावा मूल थ्योरी को एक अपरिवर्तनीय शास्त्र (वेद, गीता, कुरान, बाइबिल की तरह , अपौरुषेय) मान लिया गया और कुछ भी इतर या आगे कहना कुफ्र हो गया। मार्क्स ने dialectics पर बहुत जोर दिया था, याने सतत चर्चा, परिचर्चा और विवर्तन। मार्क्सवाद पर चर्चा , मार्क्सवादियों से ज्यादा , पूंजीवादियों ने की हैं और इसके वरक्स एक लिबरल डेमोक्रेटिक व्यवस्था जो मोटे तौर पर अमेरिका में है पेश किया। फुकुयामा का end ऑफ़ हिस्ट्री इसी का उदघोष था। लेकिन जिस समाज में घोषित रूप से सारी पूँजी सिर्फ 100-500 हाथों में सिमट जाये, बाकि जनता पूरी जिंदगी emi और 1 तारीख और अपनी नौकरी के बचे रहने पर आधारित हो, क्या आदर्श या वांछनीय है ?
पूंजीवादी व्यवस्था ने जानबूझ कर एक धुंध ( haze) का निर्माण कर पूरी सभ्यता को उसमें आलिप्त कर दिया है जिसमे हर कदम टटोल कर चलते रहें और जीवन तात्कालिकता में ही बीत जाए।
विषय बहुत ही व्यापक है। इस मंच के बूते के बाहर, लेकिन सबसे अनिवार्य जरूरत इस बात को समझने में है , धूमिल के शब्दों में,
एक आदमी रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है,
एक तीसरा आदमी
जो न रोटी बेलता है न खाता
वह रोटी से खेलता है,
मैं पूछता हूँ वह कौन है?
मेरी देश की संसद मौन है।
(स्मृति से दे रहा हूँ।)

Thursday, August 29, 2013

POWER - THE GREAT LEVELER

Unless we negate the grEat polemics of Marx/Lenin we can not put forford the theory of Communism . What is more saddening that as far as theory(not ideology) is concerned, there is no serious attempt after 1883 or 1924. We have deified Marx/Engales/Lenin and the whole theory has become a dogma and resultant into religion. Yes you have to accept that marxism has been retrograded into the religious form, contents may differ. Whereas the Capitalism/Colon ism/Neo-Capitalism has evolved so much and created such a great farce that it has become inevitable necessary evil. Unless we start( that is minimum we can do) a fresh insight of Marxism taking into consideration of knowledge society/epoch making technological revolution/communication revolution there can not but rhetoric and polemics.It is the brute and ruthless game of POWER -comrade.

THE TRAVESTY OF MARXISM

Dear comrade realleft,

I have to agree with you to a certain extent, you are right when you say that the vast majority of self-proclaimed 'Communist' parties today are revisionist, i.e., they have revised the theory they claim to adhere too. That is why the theory I adhere too is very different from 'traditional' theories. Sure, I also claim to adhere too Marxism-Leninism, as those revisionists do, but what is the difference between us?

The main difference is that they, as you said, treat Marxism-Leninism as a religious dogma, whenever an issue comes up they start quoting Lenin or Marx on the subject, even when it is obvious that their views cannot be applied to the material conditions of today. They do not advance Marxism-Leninism (or Maoism, Trotskyism, Orthodox Marxism etc.), but stop its advancement.

I have noticed this and thought to myself; 'did Lenin not advance Marxism, but at the same time adhere to its basic principles, that is, the science of Marxism, did he not use the tool of Marxism to analyze the material reality of his era?' the answer to that is yes, in my opinion. I concluded from this that these so-called 'Marxist-Leninists' are in fact opposed to Lenin's theory. As an Orthodox Leninist, I believe we should do the same as Lenin did, use the tool of Marxism to analyze the material reality of today and come to scientific, Marxist conclusions from that analysis, without caring about 'stepping on the toes' of past revolutionary leaders on certain subjects.

As you said, I believe that a single person, or a single group, must do this. The situation we are in today is similar to the situation Lenin was in about 110 years ago, the second international and self-proclaimed 'Marxist theoretician' were vulgarizing Marxism, degrading it to petty reformism, robbing the theory of its revolutionary character. What did Lenin do? Instead of giving up on the theory, instead of joining the majority view of his day, he stood against them, against all odds he started defending Marxism from vulgarizations and degradation's, and in fact succeeded in his task, he not only defended the basic principles and revolutionary character of Marxism, but also advanced the theory.

Why can the same thing not happen today? Sure, it seems unlikely, it seems to be 'against all odds', but I have faith in proletarian intellectuals, I believe a group will come along that will get rid of the vulgarizations of Marxism-Leninism, and I believe this group will be Orthodox Leninist, i.e., using the same method as Lenin, to achieve this task.

I hope that helped. I have a question, can I use your member title and use your post with my reply in my blog? I believe this would make an interesting blog entry.

With comradely greetings,

Tuesday, January 18, 2011

THE HAZE OF LEFT

The  very notion of so much delibration on theory of marxism , vividly emphasize that there is hope and chance to reclaim  the very notion of a just/eqalitarian and opperession free world. The need of hour,as you 've rightly stated that to fight with utmost ressolve and an undomitable will with all the forces of revisionism. You'll agree with me when I say that the whole intelligentia of world is engulfed into a graet HAZE- A Haze of confusion,chaos,lack of clarity and in a great deal lack of any visible theory which can throw the dimmest light upon this state of affair. I personaly feel that the act of Lenin when he chose to write "Materialism and Emperio-critism" has to understood in total historical perspective and we must put forward the theory from the thread he had left. To have an iconoclatic perspective upon any of theretical promlem 'll be the a great folly  for which history'll never forgive us. See -the greatest attribute of POWER(let us accept the Foucaultian intrepreatation of history) is to appropriate /sumsume even the greatest rebel. Budha,Mohamad even Christ were  greatest rebels of their time but history has shown that the POWER could apprpriate them and assimilated into itself. More or less the same thing has happened with Marx/Lenin also and we must accept that the present Power(to Quote US et el. shall be over-simplification) has made them unfashionable/out of context/histoeical blur. You talk to the most opperessed youth - even he 'll not envince slightest interest into the marxian theory.
I strongly feel that as far as Economic Theory is concerned, there is no better or even the reply to Marx. The whole gamut of economists througout have only tried to falsify the surplus value theory and the inherent contradictions of capitalism - may it be Keyense,Schumpeter,Samuelson - they are only trying to cover up the glaring contradictions of capitalism which was so clearely expounded by Marx.But the historical blunder has happened that nobody since marx have even tried to further develop/evolve the economic theory which is core of whole Marxism.Instead the focus was sifted to superstructure-cultutral studies / sexuality and other polemics. The result is so clear- Bourgesis has simply appropritated the whole leftist movement.

Monday, November 29, 2010

इस औचक समय में

इस औचक समय में
                                  ---दीपक मिश्रा
इस बेहद दुश्वार और उत्कट समय में
जब मौसम की बौखलाहट , या कि
बदगुमानी में मदमस्त तानाशाह के षड्यंत्र और दुरभिसंधि
भी उस सन्नाटे को तोड़ नहीं पा रहे थे –
शब्द अपनी समूचे ताकत से अर्थवता खो रहे थे –
संवेदनशील होने का मतलब फालतू और लाचार होना था
-शहर जंगल और पसरी हुई ख़ामोशी के बीच उस आदमी
का अपने “आदमी “ होने से सम्पूर्ण इनकार
क्या समाजशास्त्रीय विवेचनाओं में उठेगा ?
क्या पड़ताल होगी कि कौन जिम्मेवार है
एक औसत बारह गजी कमरे में रहने वाला
“आदमी” सहसा “अमानवीय” और पागल क्यों हो जाता है ?
कि अपनी जमीं से जुड़ा और धंसा व्यक्ति क्यूँकर
अचानक से “ माओवादी “ हो जाता है? 

Friday, April 16, 2010

हिंदी आज भी - चपरासिओं , क्लर्को , मातहतों और सड़क छाप लोगों की भाषा क्यों है ??

आजादी (?) के ६२ सालों के बाद भी हिंदी - कैफियत की भाषा क्यों है ? आखिर हिंदी भाषी होने पुर इतनी लानत मलामत क्यों है ? मुंबई में तो एक अपराध हो गया है . कितने हिंदी भाषी साहित्यकारों के बच्चे हिंदी में बात करते हैं और हिंदी माध्यम से पढाई की है? ये सवाल बहुत असहज और दुविधापूर्ण हैं. दुर्भाग्य से अनुतरित और अवान्चिच्त ये प्रश्न हिंदी के इस दयनीय वस्तुस्थिति का दारुण चित्रण हैं.