Monday, November 29, 2010

इस औचक समय में

इस औचक समय में
                                  ---दीपक मिश्रा
इस बेहद दुश्वार और उत्कट समय में
जब मौसम की बौखलाहट , या कि
बदगुमानी में मदमस्त तानाशाह के षड्यंत्र और दुरभिसंधि
भी उस सन्नाटे को तोड़ नहीं पा रहे थे –
शब्द अपनी समूचे ताकत से अर्थवता खो रहे थे –
संवेदनशील होने का मतलब फालतू और लाचार होना था
-शहर जंगल और पसरी हुई ख़ामोशी के बीच उस आदमी
का अपने “आदमी “ होने से सम्पूर्ण इनकार
क्या समाजशास्त्रीय विवेचनाओं में उठेगा ?
क्या पड़ताल होगी कि कौन जिम्मेवार है
एक औसत बारह गजी कमरे में रहने वाला
“आदमी” सहसा “अमानवीय” और पागल क्यों हो जाता है ?
कि अपनी जमीं से जुड़ा और धंसा व्यक्ति क्यूँकर
अचानक से “ माओवादी “ हो जाता है? 

Friday, April 16, 2010

हिंदी आज भी - चपरासिओं , क्लर्को , मातहतों और सड़क छाप लोगों की भाषा क्यों है ??

आजादी (?) के ६२ सालों के बाद भी हिंदी - कैफियत की भाषा क्यों है ? आखिर हिंदी भाषी होने पुर इतनी लानत मलामत क्यों है ? मुंबई में तो एक अपराध हो गया है . कितने हिंदी भाषी साहित्यकारों के बच्चे हिंदी में बात करते हैं और हिंदी माध्यम से पढाई की है? ये सवाल बहुत असहज और दुविधापूर्ण हैं. दुर्भाग्य से अनुतरित और अवान्चिच्त ये प्रश्न हिंदी के इस दयनीय वस्तुस्थिति का दारुण चित्रण हैं.

Tuesday, March 16, 2010

Itna sannata kyon hai bhai?

This dialogue delivered by A.K.Hangal in Sholay epitomize the essence of this period. Virtually there is no activity. No ideology, no theory, total chaos -life seemed to be in total haze.