Thursday, December 15, 2016

ANIL ANALHATU

प्रिय मित्र और विद्रोही कवि तथा विलक्षण चिंतक भाई दीपक मिश्र के कुछ अस्फुट से विचार
1. हर व्यक्ति विवर्तित होता है, तभी वह जिन्दा है, समीचीन है। अनिल जी के साथ ही उस वैचारिक यात्रा की प्रासंगिकता को उन अर्थो में देखना ज्यादा महत्वपूर्ण होगा जिसमें हम (दोनों ) कैट होने से अपने आपको बचाये रखने का , एक अनवरत प्रयास कर रहे हैं। अनिल जी में एक अतिरिक्त सलाहियत है, उनकी कविताई। 1987 में ही , ख्यात साहित्यकार भारत यायावर ने यह घोषणा कर दी थी, अनिल बहुत उच्चे पाए के कवि हैं। जीवन के तमाम संघर्षो ने उस दृष्टि को धार दी है और यकीन माने ज्यादातर कविताएँ अनिल जी ने 15-20 साल पहले ही लिखीं हैं। भला हो फेसबुक, व्हात्सप्प , ब्लॉग और तमाम सूचना क्रांतियों के उपकरणों का कि ये प्रकाश में आयीं ।
वैचारिकता के स्तर पर अनिल उस रोमान से बाहर आ कर जो सोवियत संघ और कम्युनिष्ट पार्टियों के आधार पर था, बेहद वस्तुनिष्ठ और ठोस विचारो के साथ दीखते हैं। इस वैचारिक विवर्तन में, फ़ाकिर जय का भी एक उल्लेखनीय योगदान रहा है। गरचे फ़ाकिर घोषित रूप से अनिल जी को गुरु मानते हैं, लेकिन इस समय , मेरी समझ से उत्तर आधुनिकता, उत्तर संरचनावाद पर फ़ाकिर जैसे विद्वान् विरले हीं हैं हिंदी पट्टी में। महाख्यान से लघुख्यानो से फ़ाकिर ने (कम अस कम मुझको ) संपृक्त किया और चीजो को देखने का एक और विजन दिया।

2. मार्क्सवाद का सबसे महत्वपूर्ण अंग dialectical materialism था। मार्क्स ने , अगर आप कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो पढ़े, तो यह आगाज किया था कि अभी तक दार्शनिको/दर्शन ने दुनिया को समझने /व्यख्यायित करने का काम किया है, मूल प्रश्न इसे बदलने का है।
दूसरा मार्क्स ने उस समय तक के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक सिद्धान्तों को आत्मसात कर एक बेहतर सिद्धान्त दिया। लेकिन दुर्भाग्य से लेनिन, Rosa Luxemburg , लुकाच, ग्राम्सी आदि के अलावा मूल थ्योरी को एक अपरिवर्तनीय शास्त्र (वेद, गीता, कुरान, बाइबिल की तरह , अपौरुषेय) मान लिया गया और कुछ भी इतर या आगे कहना कुफ्र हो गया। मार्क्स ने dialectics पर बहुत जोर दिया था, याने सतत चर्चा, परिचर्चा और विवर्तन। मार्क्सवाद पर चर्चा , मार्क्सवादियों से ज्यादा , पूंजीवादियों ने की हैं और इसके वरक्स एक लिबरल डेमोक्रेटिक व्यवस्था जो मोटे तौर पर अमेरिका में है पेश किया। फुकुयामा का end ऑफ़ हिस्ट्री इसी का उदघोष था। लेकिन जिस समाज में घोषित रूप से सारी पूँजी सिर्फ 100-500 हाथों में सिमट जाये, बाकि जनता पूरी जिंदगी emi और 1 तारीख और अपनी नौकरी के बचे रहने पर आधारित हो, क्या आदर्श या वांछनीय है ?
पूंजीवादी व्यवस्था ने जानबूझ कर एक धुंध ( haze) का निर्माण कर पूरी सभ्यता को उसमें आलिप्त कर दिया है जिसमे हर कदम टटोल कर चलते रहें और जीवन तात्कालिकता में ही बीत जाए।
विषय बहुत ही व्यापक है। इस मंच के बूते के बाहर, लेकिन सबसे अनिवार्य जरूरत इस बात को समझने में है , धूमिल के शब्दों में,
एक आदमी रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है,
एक तीसरा आदमी
जो न रोटी बेलता है न खाता
वह रोटी से खेलता है,
मैं पूछता हूँ वह कौन है?
मेरी देश की संसद मौन है।
(स्मृति से दे रहा हूँ।)